प्रस्तावना किसे कहते हैं?
किसी भी विषय पर लिखी जाने वाली कोई बड़ी किताब जो की शिक्षा हेतु लिखी गयी हो या कानून पर लिखी गयी हो या कोई भी विषय जिसका स्वरूप बहुत ही बड़ा हो लेकिन कोई व्यक्ति उसे संक्षिप्त रूप में जानना चाहता हो कि आखिर वह किताब या कानून किस विषय पर लिखी गई है? इसके लिए किताब में सबसे ऊपर ही लगभग एक पेज में लिखी गई वे सभी जानकारी कि आखिर वह किताब किस विषय पर लिखी गई है? उसका जनक कौन है? या उस किताब या कानून के अंदर किन-किन बातों को सम्मिलित किया गया है का संक्षिप्त विवरण दिया गया होता है। जिसे हम प्रस्तावना के नाम से जानते हैं। इस ब्लॉग में हम जानेंगे की प्रस्तावना, भूमिका और समीक्षा किसे कहते हैं? इनमें क्या अंतर है और कैसे लिखें?
प्रस्तावना का उदाहरण दीजिए–
दोस्तों हमने प्रस्तावना का प्रयोग लगभग हर किताब में देखा है लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्ध प्रस्तावना हमारे भारत के संविधान का है,,जो कि इस प्रकार से है –
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिकविचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए, दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
और उसके साथ ही साथ अन्य बहुत सारी किताबें हैं जैसे में हम आपके यहां पर समाजशास्त्र के एक किताब की प्रस्तावना का उदाहरण दे रहे हैं,
“समाजशास्त्र समाज का एक विज्ञान है, यह एक ऐसा विषय है जिसमें मानव समाज के विभिन्न स्वरूप, संरचना व प्रक्रियाओं का क्रमबद्ध तरीके सेअध्ययन किया जाता है।अगस्त कामटे को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है जिन्होंने सर्वप्रथम एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में सर्वप्रथम समाजशास्त्र विषय का 19वीं शताब्दी में पूर्वार्ध किया था। अगस्त कामटे को मानवीय एवं सामाजिक एकता पर बल देने वाले विषय के निर्माता के रूप में प्रथम समाजशास्त्री जाना जाता है।यह समाजशास्त्र के केवल जनक ही नहीं बल्कि विज्ञानों के संस्करण में समाजशास्त्र को उचित स्थान दिलाने के लिए बहुत संघर्ष और जोरदार प्रयास भी किया है।,,
किताबों की भूमिका किसे कहते हैं?
कोई भी किताब लिखने से पहले लेखक को इस बात का ध्यान देना होता है कि उसे किताब की भूमिका बहुत ही मजबूत होनी चाहिए। इसके लिए सबसे पहले हमें यह जानना जरूरी है कि आखिर भूमिका कहते किसे हैं?
तो दोस्तों हम आपको बता दे कि “लेखक द्वारा उसकी संपूर्ण किताब के विषय में एक छोटा सा लिखा गया परिचय जिसमें कि उसे किताब का जिसकी भूमिका हम लिख रहे हैं फिर वह कहानी है या उपन्यास है या कविता है कुछ भी है उसका एक छोटा सा अंश जो कि उसे किताब का सबसे मजबूत हिस्सा हो जिससे कि पाठक उसे किताब को पढ़ने के लिए और भी अधिक आकर्षित हो इसके लिए जाए लिखा जाता है, और संपूर्ण भूमिका में लेखक इस प्रकार से उसकी तप की भूमिका लिखता है या किताब का परिचय लिखता है जिससे कि यह समझ में आता है कि लेखक अपनी पाठकों से उनके सम्मुख बैठकर बात कर रहा है। जिसके लिए वह अपने संपूर्ण भूमिका में कई जगहों पर मेरे प्रिय पाठकों,पाठकों जैसे शब्दों को दोहराता है। जिससे कि किताब को पढ़ने वाले पाठकों को यह समझ में आता है कि उसे किताब में पाठकों के लिए विशेष सम्मान है। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर लिखा गया किताब का सबसे पहला पन्ना ही भूमिका कहलाता है।,,
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भूमिका का उदाहरण दीजिए–
नीचे हम आपको भूमिका से संबंधित एक उदाहरण बताएंगे जिसे पढ़ कर आप समझ जाएंगे कि आप किताबों के लिए भूमिका किस प्रकार से लिख सकते हैं।
“”मेरे प्रिय पाठकों
कभी–कभी हमारे सामान्य से जीवन में भी कुछ ऐसी घटनायें घटती हैं कि बस उन घटनाओं को शब्द देने की चाह हो जाती है। तो बस मेरी कवितायें भी कुछ ऐसी ही हैं, जिन्हें मैं किसी और से कह न पायी लेकिन अपने इन भावों को शब्द दिए बगैर रह भी न पायी।
मैं हर नारी की जिम्मेदारी तो नहीं लेती लेकिन भारत की लगभग 60% महिलाओं के बारे में यह कह सकती हूँ कि “नारी कि जिंदगी आसान नहीं होती।” हर नारी अपने जीवन को यदि कलात्मक ढंग से जीने की कला नहीं सिख पाती है तो वो समाज के नजरिये से “वह सामाजिक कसौटी पर पराजित कहलाती है।“
नारी जीवन एक ऐसा जीवन है जो अपने लिए कभी भी बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाती है। फिर भी उससे लोगो को ढ़ेरो सवाल होते हैं। और वहीं हर रोज उसके मन में यह ख्याल आता है कि–
“हर रोज थक जाती हूँ मैं जिम्मेदारियों के बोझ में,
शाम होते ही निकलती हूँ सुक़ून कि खोज मे।
जब कुछ न लगता हाथ मेरे बैठ बस ये सोचती,
आज ना तो फिर कभी आएगा इतवार मेरे शालासौंध में।“
समीक्षा किसे कहते हैं?
किसी विषय पर किताब लिखी जाने के बाद उसे किताब की समीक्षा की जाती है कि आखिर वह किताब किस स्तर पर लिखी गई है वह उसकी विशेषताएं क्या है और उसमें आलोचना करने लायक कौन सा अंश है? कहने का तात्पर्य है कि कोई भी पुस्तक लिखे जाने के बाद समीक्षक द्वारा उस किताब की अच्छे से छानबीन की जाती है… उस किताब की विषय वस्तु क्या है? पलेखक का स्तर क्या है? वह किताब किस विषय पर लिखी गई है? और उस किताब के उद्देश्य क्या है? और वह किताब कोई पढ़े तो आखिर क्यों पढ़े? उससे किसी को क्या लाभ होने वाला है? यह तमाम प्रकार की विशेषताएं समीक्षक अपनी समीक्षा में लिखता है।
यदि हम सरल शब्दों में समझना चाहे तो हम समझ सकते हैं कि “किसी पुस्तक के लिखे जाने के बाद उस पुस्तक पर दी गई राय को जो की समीक्क्षक द्वारा दी जाती है उसे समीक्षा कहते हैं।”
लेकिन आजकल अधिकतम समीक्षाएं लेखको की चाटुकारिता के लिए भी समीक्षको द्वारा लिखी जाती है। जो की सही नहीं है।
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समीक्षा का उदाहरण दीजिए–
समीक्षा जो कि किसी किताब को पढ़ने के बाद और उसकी पूरी तरह से छानबीन करने के बाद समीक्षक उस किताब के विषय में लिखता है जिसका एक उदाहरण हम आपके यहां दे रहे हैं जोकि एक कविताओं की किताब “दो टूक जिंदगी की” में से लिखी गई है।
“सुश्री श्वेता पाण्डेय का काव्य संग्रह “दो टूक जिंदगी की” सामाजिक विसंगतियों पर सीधी सीधी बात करता है २६कविताओं का यह संग्रह है इस पुस्तक में कविता के साथ कविता के जन्म लेने की कहानी है जीवन और उसके अनुभव से जुड़ी कविताएं रुचिकर है क्योंकि कवयित्री ने अनेक सामाजिक बुराइयों कुरीतियों का जोरदार वर्णन किया है। इस संग्रह की कविताओं में मानवीय अनुभवों प्रसंगों उनके सूक्ष्मतम निहितार्थ के साथ मानव और प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग पड़ावों के मार्मिक अनुभवों प्रसंगों को उभारने का आईना है। मानवीय सरोकारों के निरंतर फैलते हुए क्षितिज को रेखांकित करते हुए यह संग्रह कठोर अनुभव एवं सच्चाई से भरपूर धीरे धीरे आंतरिक संगीत की रचना करता है। कविताओं में संवादधर्मिता आश्चर्य विस्मय व्यंग्य बोधिता प्रश्नाकुलता धार्मिकता कर्तव्य परायणता प्रेम घृणा उलाहना वेदना और उत्साह के कारण बार बार पढ़ने को लालायित करता है। कवयित्री अपने सकारात्मक ढंग से जीवन में स्वयं के संघर्ष और प्रकृति के तर्क को समझकर आगे बढ़ते हुए स्वयं में एक अनूठा आत्मविश्वास जगाते हुए समाज की तमाम स्त्रियों के लिए मिशाल बनीं है। वर्तमान सामाजिक जीवन और उसकी नैतिकता के बीच जूझ रही स्त्रियों को रेखांकित करती है। जीवन की निर्थकता के साथ अधूरे प्रेम की प्राप्ति एवं भावनाओं के बाजारीकरण की वर्तमान स्थिति को दर्शाती है। कविता के गागर में ज्ञान प्रेरणा और सदुपदेश का सागर समाहित है। दैनिक जीवन की घटनाओं पर आधारित मर्म को छूने वाली कविताएं हैं। प्रकृति और नैसर्गिक वातावरण को साधारण शब्दों के माध्यम से संप्रेषित करना एक अनूठा प्रयोग है, साथ ही रिश्तों के महत्व को दर्शाते हुए कविताएं हमारी मनुजता को झकझोरती भी है।हरेक कविता अपने आप में एक कहानी बुनती है एक आईना दिखाती है और कई सपने बुनती है। सीधी सरल भाषा में जीवन के गीत गाते सपनों को आवाज देती इन कविताओं में यह विश्वास है कि समय की भागदौड़ में जुटा मनुष्य एक न एक दिन प्रकृति से सामंजस्य अवश्य बनाएगा।पघ की लयात्मकता है अव्यक्त सा प्रेम व्यक्त होने को छटपटाता प्रेम बहुत स्वाभाविक और भला सा लगता है। वर्तमान युग में अवसाद के धुंधले पन और निराशा के कोलाहल के बीच जीवन को उत्सव की तरह बनातीं, जीवन के गीत गाती सपनों को आवाज देती इन कविताओं में यह विश्वास है कि मानवमन जीवन की वास्तविक खुशियों को एक न एक दिन सब अवश्य ही सीख लेगा, सभी कविताएं अत्यंत ही आकर्षक रुचिकर एवं वास्तविकता से ओतप्रोत है।घर की चौखट से शुरू देश के माथे तक पहुंची कविता की रचना ने आज यह सिद्ध कर दिया”जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि”।।।।। साधुवाद।“
इस प्रकार से समीक्षा किताब की सभी विशेषताओं को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है जिससे कि पाठकों के मन में यह बात आती है कि आखिर हम यह किताब पढ़े तो क्यों पढ़े और अगर ना पढ़े तब क्यों ना पढ़े।
प्रस्तावना, समीक्षा और भूमिका में क्या अंतर है?
तो दोस्तों आपने हमारा यह पूरा लेख पढ़ा होगा और समझा होगा कि आखिर प्रस्तावना, समीक्षा और भूमिका में क्या अंतर होता है?
अगर आप नहीं समझे तो हम आपको बताते हैं कि”
1- प्रस्तावना वह होती है जो किसी एक बड़े विषय या बड़े प्रसंग के लिए लिखी जाती है। प्रस्तावना संपूर्ण किताब के बारे में यह बताता है कि आखिर वह किताब किस विषय में लिखी गई है? उस किताब को लिखने वाला कौन है? या उस विषय की खोज किसने की है जैसी तमाम बातें,,। जोकि किताब के पहले ही पेज पर लिखा जाता है।
2- भूमिका किसी व्यक्तिगत या सामाजिक विषय पर लिखी गई किताब होती है जिसके लिए लेखक उस किताब के कुछ अंश को भी उस भूमिका के अंदर लिखता है और जगह-जगह पर अपने पाठकों को संबोधित करते हुए वह संपूर्ण भूमिका लिखी गई होती है। संपूर्ण किताब के विषय में उसका छोटा सा परिचय ही भूमिका कहलाता है।
3- समीक्षा उसे कहते हैं जो की किताब लिखे जाने के बाद किसी किताब के विषय के बारे में की आखिर वह किताब किस तरह की लिखी गई है वह किस स्तर की लिखी गई है? को समीक्षक लिखता है। जिसे किताब के सबसे पिछले हिस्से पर प्रकाशित किया जाता है।
तो दोस्तों हमें आशा है कि आपने हमारे इस लेख में प्रस्तावना, समीक्षा और भूमिका से संबंधित वह संपूर्ण जानकारी प्राप्त की है जिसे आप जानना चाहते थे।