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रामधारी सिंह “दिनकर” का जीवन परिचय

दोस्तों आज हम आपसे अपने इस लेख में भारत की धरती पर जन्मे हिंदी के राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर के बारे में चर्चा करने वाले हैं। जिनकी महान लेखनी हर किसी को नतमस्तक होने पर मजबूर कर देती है। हम आपसे इस पोस्ट में रामधारी सिंह दिनकर के बारे में वे संपूर्ण चर्चाएं करेंगे जिनके बारे में शायद आप अभी तक अवगत नहीं हैं। तो चलिए हम जानते हैं रामधारी सिंह “दिनकर” कौन थे?

रामधारी सिंह “दिनकर” कौन थे?

रामधारी सिंह “दिनकर” जी छायावादोत्तर कवियों में पहली पीढ़ी के कवियों में से एक थे। रामधारी सिंह “दिनकर” एक ऐसे महान राष्ट्रीय कवि थे जिनकी कलम नें कभी भी सत्ताधारियों के प्रति अपनी चाटुकारिता को प्रदर्शित नहीं किया, और सत्य मार्ग के पथ पर सदैव अपनी लेखनी को जारी रखा। सामान्य तौर पर हम अपनी हिंदी की किताबों में रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं को पढ़ते हैं, लेकिन जिस समय हमें उनकी कविताओं को पढ़ाया जाता है तब हम उनके भावों को अच्छे से नहीं समझ पाते हैं जब तक कि हमें कोई अच्छा गुरु ना मिले। रामधारी सिंह की कविताएँ एक सामान्य इंसान के भी रगों में बहते हुए खून को जोश से भर देती हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने कांग्रेस पार्टी में रहकर भी देश के हित में बहुत सारे काम किए हैं लेकिन जब जब कांग्रेस के द्वारा सामान्य नागरिकों को किसी भी प्रकार की समस्या दी जाती थी तब तब रामधारी सिंह दिनकर ने अपने ही पार्टी के विरोध में अपनी रचनाओं को लिखा और जन सामान्य में उन रचनाओं को पढ़कर प्रदर्शित किया,, जिनमें से उनकी एक कविता जो की बहुत ही अधिक मशहूर है जो कि इस प्रकार से है कि-

सदियों की ठंडी- बुझी राख राख़ सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज़ पहन इठलाती है।

दो राह, समय के रथ का घर्घरनाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।।,,

रामधारी सिंह दिनकर जी एक ऐसे आधुनिक युग के मशहूर और महान कवि थे जिन्हें की “काल के चारण,, व “युग-चारण,, की उपाधि देकर सम्मानित किया गया है। आदरणीय श्री रामधारी सिंह “दिनकर” जी को भारत के स्वतंत्र होने से पहले एक विद्रोही कवि के रूप में भी जाना जाता था। और फिर जब भारत स्वतंत्र हो गया तब उन्हें राष्ट्र के हित में कविताएं लिखने के लिए राष्ट्रकवि के नाम से जाना जाने लगा।यदि हम उनकी कविताएं ध्यान पूर्वक पढे तो हम पाएंगे कि उनकी कविताओं में ओज,आक्रोश और विद्रोह तथा क्रांति जैसे भावों का समावेश है।जिन्हें की राष्ट्र के लिए लिखा गया है। और वहीं दूसरी और यदि उनकी भावनाओं को हम समझे तो उन्होंने अपनी बेहद ही कोमल हृदय से श्रृंगार रूपी कविताओं की भी रचना की है जिससे कि हम उनके  कोमल हृदय को भी समझ पाने में समर्थ होते हैं। रामधारी सिंह दिनकर जी नें उर्वशी, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी रचनाएं रच कर अपना नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करवाया है।

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रामधारी सिंह दिनकर का जीवन और उनका परिवार

रामधारी सिंह दिनकर का जन्म सन 1908 में 23 सितंबर को बिहार राज्य के बेगूसराय जिले के सिमरिया नामक गांव में एक भूमिहार कृषक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दिनकर जी वास्तव में बिहार राज्य में देश के दिनकर बन कर हीं आये थे।इनके पिताजी का नाम बाबू रवि सिंह था जो की एक किसान थे। और उनकी माता का नाम मनरूप देवी था। इनके बड़े भाई का नाम वसंत सिंह था। जिनके जन्म के बाद उनके माता-पिता को एक बेटी की इच्छा थी लेकिन बेटे के पैदा होने की वजह से सभी ने इन्हें भगवान राम का आशीर्वाद मानते हुए रामधारी नाम रख दिया जिसके बाद इनका नाम रामधारी सिंह हो गया। और उनके घर वाले इन्हें प्यार से “नुनुआ” बुलाते थे।रामधारी सिंह दिनकर के जीवन में बहुत सारी विपदायें एक साथ आन पड़ी थी क्योंकि इनके पैदा होने के कुछ समय बाद ही महज़ यह ज़ब दो साल के थे तभी इनके पिताजी की मृत्यु हो गई और उस समय इनकी माता गर्भवती थीं। पिता की मृत्यु के बाद इनके तीसरे भाई का जन्म हुआ जिनका नाम सत्यनारायण था। एक ही घर में तीन बेटे और एक माँ का अब जीवन बसर करना मुश्किल हो गया था क्योंकि किसानी से भी उतना पैसा नहीं आ पा रहा था जिसकी वजह से कि वह अपना जीवन व्यापन कर सके और न हीं इनकी इतनी अधिक उम्र थी कि यह कोई अपनें रोजगार का जरिया बना सकें। लेकिन उनके रिश्तेदारों और गांव वाले नें उनके परिवार की बहुत मदद इसके बावजूद इनके घर में कभी कभार एक समय की रोटी नहीं बन पाती थी। इसके बाद छोटे भाई सत्यनारायण और बड़े भाई वसंत सिंह ने मिलकर इस बात का फैसला किया कि वे दोनों लोग नहीं पढ़ेंगे और वे दोनों लोग मिलकर रामधारी सिंह को आगे पढ़ाएंगे। इसके बाद यह दोनों ही भाई खेती-बाड़ी में जुड़ गए और रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी शिक्षा के लिए प्राइमरी स्कूल जो कि उनके गांव में ही था से शुरुआत की। इसके बाद उनके गांव सिमरिया से लगभग 4 किलोमीटर दूर बारो गाँव में मिडिल स्कूल था जिसमें इन्होंने अपना एडमिशन लिया। इसी बीच जब वह सन 1921 से 1923 के बीच अपना मिडिल स्कूल की परीक्षा पास कर रहे थे और जब वह महज 13 साल के थे तभी उनकी माता नें उनका ब्याह सन 1921 में श्यामवती  से कर दिया।

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इसके बाद इन्होंने अपनी हाई स्कूल की पढ़ाई मोकामा घाट से की जो की पटना में उनके घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर था जहाँ जाने के लिए रोज रामधारी सिंह को गंगा नदी पार करते हुए स्कूल तक पहुंचना था। और तब रामधारी सिंह दिनकर की उम्र भी 15 साल की ही थी। यह 15 साल का लड़का सुबह 5:00 बजे उठकर अपना रोज का काम करते हुए घर से निकलता और गंगा नदी पार करके लगभग 9:30 बजे तक 15 किलोमीटर दूर स्कूल पहुंचता था और उसके बाद शाम को फिर से गंगा नदी पार करते हुए घर पर आकर श्री रामचरितमानस की रचनाओं को पढ़ता और इसका भावार्थ घर वालों को सुनाता, जिसके बाद वह अपने गृह कार्य को पूरा करते थे और तब जाकर कहीं वह सोते थे।

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और फिर से मैट्रिक में एडमिशन लेने के लिए घर पर पैसे नहीं थे तो दोबारा से उनके दोनों भाई वसंत सिंह और सत्यनारायण सिंह ने मेहनत करके कहीं से भी पैसे इकट्ठा किया और रामधारी सिंह दिनकर का एडमिशन मैट्रिक में करवाया और उस साल रामधारी सिंह दिनकर ने इतनी ज्यादा मेहनत की कि वह पूरे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए भूदेव स्वर्ण पदक से सम्मानित किए गए।

इसके बाद उन्होंने घर खर्च को देखते हुए नौकरी करने का फैसला किया और बहुत इधर-उधर भटकने के बाद बरबीघा हाई स्कूल में हेड मास्टर के पद पर इन्हें पहले नौकरी लगी जहां इनको ₹55 मासिक वेतन पर रखा गया था।

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रामधारी सिंह दिनकर का साहित्यिक जीवन रचनाएँ

रामधारी सिंह दिनकर ने मात्र 9 साल की उम्र से ही कविताएं लिखना शुरू कर दिया था लेकिन उनकी सबसे पहली कविता बेगूसराय से छपने वाली प्रकाश  पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। जो की बहुत ही प्रसिद्ध हुई थी जिसके बाद किसी व्यक्ति का इनसे प्रश्न था कि क्या आप प्रकाश के मुख्य स्रोत हैं?  इसके बाद रामधारी सिंह ने अपने मन में सोचा कि प्रकाश का स्रोत तो मैं हूँ हीं और प्रकाश मुझमें भी  है तो मेरा नाम भी क्यों ना मैं दिनकर रख लूँ?जिसके बाद उन्होंने अपने नाम के साथ दिनकर लगाना शुरू कर दिया।

इसके बाद 20 वर्ष की उम्र में रामधारी सिंह दिनकर ने लगभग 10 गीत लिखे थे जिसे की सन 1928 में एक किताब में प्रकाशित किया गया था। और जब लोगों तक इस किताब की चर्चा पहुंची तो पूरे भारत जगत में यह बात मशहूर हो गई थी कोई एक और ऐसा लेखक उभर कर आया है जिसकी कविताएं वाकई में पढ़ने लायक हैं।

इसके बाद सन 1929 में रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी हिमालय नामक कविता लिखी और उसे एक कवि सम्मेलन में पढ़ा। यह कविता इतनी अधिक मशहूर हुई कि उन्हें उसे रात जाने कई बार इस कविता को पढ़ना पड़ा था और इसके बाद हर युवा के जुबान पर उनकी यह कविता गुनगुनाते हुए सुनी गई थी।

इसके बाद उनकी कुछ भावनाएं महात्मा गांधी के प्रति भी लिखी गई जो की बापू नामक रचना में इस प्रकार से हैं –

संसार पूजता जिन्हें तिलक

 रोली,फूलों के हारो से,

 मैं उन्हें पूछता आया हूँ,

 बापू!अब तक अंगारों से।,,

और फिर जब उन्होंने सन 1946 में कुरुक्षेत्र लिखी तब लोगों में मानो एक बार फिर से एक नई लहर देखने को मिली।

रामधारी सिंह दिनकर देश के बंटवारे के खिलाफ थे जिसके बाद उन्होंने अपनी कलम से तकदीर का बँटवारा माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए लिखा था कि-

हाथ के जिसकी कड़ी टूटी नहीं,

पांव में जिसके अभी जंजीर है।

बाँटने को हाय तौली जा रही,

बेहया उसे कौम की तकदीर है।,,

इसके बाद रामधारी सिंह दिनकर ने भारत की भुखमरी पर भी अपनी कविता लिखी थी समर शेष है जिसकी कुछ पंक्तियां हैं –

कुमकुम लेंपू, किसे सुनाऊँ,

किसको कोमल गान?

तड़प रहा है, आँखों के आगे,

भूखा हिंदुस्तान।,,

और फिर रामधारी सिंह दिनकर जाति-पाति की प्रथा से आहत होते हुए दिखाई देते हैं तब रश्मिरथी नामक एक महाकाव्य की रचना कर देते हैं। जिसकी एक एक पंक्तियाँ लोगों के रक्त में उबाल भर देती है।

और फिर कुछ लोगों ने उनसे जब यह प्रश्न पूछा था कि आप केवल वीर रस की कविताएं लिखते हैं तब उन्होंने कहा था कि “मेरे हाथों में राष्ट्रवाद का शंख दिया गया है तो मैं इन हाथों से प्रेम रूपी वीणा कैसे बजाऊं?,,

लेकिन फिर भी रामधारी सिंह दिनकर की लेखनी में हमें रसवंती और उर्वशी जैसी महान रचनाएं काव्य खंड के रूप में देखने को मिलती है जिसे पढ़कर मन वाकई में बहुत ही खुश होता है।

रामधारी सिंह दिनकर का राजनीतिक जीवन

रामधारी सिंह दिनकर ने राजनीति में भी अपनी अहम भूमिका निभाई थी जिसमें कि उन्हें स्वयं नेहरू जी ने ही संसद के रूप में चुना था लेकिन फिर भी उन्होंने राष्ट्रहित में बोलते हुए हिंदी के प्रति अपना प्रेम जाहिर करते हुए संसद में यह बात रखी थी कि “जिस भाषा में नेट फाइल पर नोट लिखते हैं, वह उसी भाषा में वोट मांग कर देखें तो उन्हें पता लग जाएगा कि नतीजा क्या होता है।,,

और इसके बाद उन्होंने नेहरू जी के खिलाफ भी कई बार अपनी भावनाएं व्यंग रूप में प्रदर्शित की थी क्योंकि नेहरू जी को भी हिंदी बोलना उतना पसंद नहीं था। जिसकी वजह से रामधारी सिंह दिनकर जी ने यह कहां भी था कि बाकी 13 भाषाओं का पता नहीं कौन सा सौभाग्य है कि उनके बारे में कभी भी हमारे नेता कुछ नहीं बोलते लेकिन हिंदी के प्रति अपनी हीन भावना रखते हुए वह कभी भी हिचकीचाते नहीं है।,,

और इसी लाइन में हम रामधारी सिंह दिनकर को भ्रष्टवाद के खिलाफ भी आवाज उठाते हुए देखते हैं जबकि उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से यह बात रखी थी कि””

भारत धूल से भरा है,

आंसुओं से गीला

भारत अब भी व्याकुल

विपत्ति के घेरे में

दिल्ली में है खूब

ज्योति की चहल पहल

लेकिन भटक रहा है

सारा देश अंधेरे में।,,

इस तरह से कांग्रेस में रहते हुए समय-समय पर रामधारी सिंह दिनकर जी ने अपनी बहुत सारी बातों को व्यंगात्मक रूप से ही सही पर कांग्रेस के प्रति ही कही थी जिससे कि हमें उनके इस बात का पता चलते हैं कि वह पार्टी के नहीं बल्कि देश के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं।

रामधारी सिंह दिनकर की मृत्यु कब हुई

रामधारी सिंह दिनकर अपने जीवन में इतनी अधिक परेशान हो चुके थे कि अब उनके अंदर जीने की चाह नहीं थी। बड़े बेटे की मृत्यु अपने सामने देख कर कर रामधारी सिंह दिनकर का मन बहुत ही अधिक टूट गया था। अपने दोनों भाइयों और अपनी बेटियों को मिलाकर कुल 12 बेटियों की शादी करने की जिम्मेदारी उनके  कंधे पर थी जिसके बाद सबको पढ़ानें लिखाने का खर्चा भी रामधारी सिंह दिनकर को ही देना पड़ता था। और फिर देश की तमाम प्रकार की जिम्मेदारियाँ और हो रही सभी घटनाएं उन्हें बहुत ही परेशान कर गई थी जिसके बाद वह अपने मित्र बालकवि बैरागी और भी कई मित्रों से यह बात करते हैं कि अब उन्हें रामेश्वरम जाना है। उनके इस बात पर उनके सभी मित्र पूछते हैं कि रामेश्वरम से हमारे लिए क्या लेकर आओगे तो वह कहते हैं कि मैं कुछ नहीं लाऊंगा क्योंकि अब मैं रामेश्वरम से अपनी मृत्यु लेने जा रहा हूँ। यह बात सुनकर हर कोई स्तब्ध था। इसके बाद गंगा बाबू नामक एक उनके मित्र उनके साथ तमिलनाडु की यात्रा पर मद्रास चले गए जहां उन्होंने रामेश्वरम के दर्शन किए और रामेश्वरम के दर्शन करते ही उनके मन में ऐसा ख्याल आया कि वह वहां पर रश्मिरथी का काव्य पाठ करेंगे। तमिलनाडु भले ही हिंदी भाषा को ना समझना हो लेकिन रामधारी सिंह दिनकर की इस बात से कि वह खुद रश्मिरथी का काव्य पाठ करने वाले हैं पूरे तमिलनाडु के क्षेत्र में जगह-जगह पर माइक लगी और हजारों की भीड़ उपस्थित हुई रामधारी सिंह दिनकर को सुनने के लिए। उसे पूरे रात उन्होंने रश्मिरथी का काव्य पाठ किया और लोगों की आँखों से आँसूओं की धारा रुकती नहीं थी। इसके बाद वह समुद्र के किनारे जाकर  बैठ जाते हैं और समुद्र से खूब बातें करते हैं और उनसे कहते हैं कि देखो मैं तुम्हारे दामाद यानी कि रामेश्वरम से और तुमसे अपने इस काव्य पाठ के बदले में अपने मेहनताने के रूप में मृत्यु माँगता हूँ। तुम मुझे मृत्यु दो। इसके बाद 24 अप्रैल सन 1974 में ठीक दूसरे ही दिन रामधारी सिंह की मृत्यु हो गई। और वह दिनकर जो देश के लिए हमेशा एक सूर्य के समान जलता रहा  वह उस शाम अस्त हो गया।

रामधारी सिंह दिनकर को मिलने वाले सम्मान

रामधारी सिंह को जीवनकाल में बहुत सारे उपहार और सम्मान दिए गए हैं जिनमें से उन्हें मिलने वाले पुरस्कार कुछ इस प्रकार से हैं –

साहित्य अकादमी पुरस्कार सन 1959 में

पद्म भूषण सन 1959 में

ज्ञानपीठ पुरस्कार सन 1972 में

और रामधारी सिंह दिनकर के सम्मान में भारत सरकार द्वारा उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी किया गया था।

तो दोस्तों हमें आशा है कि रामधारी सिंह दिनकर के जीवन से संबंधित वे सभी जानकारी हमने आपको दी है जिन्हें आप जानना चाहते थे और ऐसी ही और जानकारी को पढ़ने के लिए आप हमारे दूसरे लेखो से जुड़ सकते हैं।

This Post Has 3 Comments

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